गुरुर से छुट जातें हैं पराये और हर अपने भी दूर होते हैं !
"गुरुर" दीवार को गुरुर था अपने वजूद का, सिर्फ एक 'पत्थर' निकला 'नींव' का और पूरी 'दीवार' हिल गई, पतंग को गुरुर था अपनी ऊंचाई का, अपनी उड़ान का , एक क्षण में डोर कटी और पतंग मिट्टी में मिल गई, बाँध को गुरुर था नदी को बाँधने का, रोद्र रूप धरा जब नदी के आवेग ने, बाँध पानी-पानी हो गया, नदी को गुरुर था अपने वेग का, अपने आवेग का , ज्यों ही समुंदर में मिली, अ स्तित्व उसका बेमानी हो गया , पेड़ को गुरुर था अपने तने का, अपने फूलों का अपने फलों का, किन्तु जब जड़ों ने साथ छोड़ा, पेड़ पूरी तरह धराशाई हो गया, रूपए को गुरुर था अपनी कीमत का, किन्तु जेब में धुलकर पाइ-पाई हो गया, व्यवहार बदल जातें हैं और शब्द चुभन देते हैं, गुरुर से छुट जातें हैं पराये और हर अपने भी दूर होते हैं, और विश्वास होता है जिनको अपनी जड़ों पर, अपनी नींव पर, वहाँ ‘हम’ जीत जाता हैं और उनके क़दमों में ‘मैं’ चूर-चूर होते हैं....., अभिमान की किश्तियाँ अक्सर किनारों पर डूब जाती हैं, मिल जातें हैं किनारे उनको जिनकी पतवार में नम्रता और विनम्रता का दम होता है और जब ‘गुरुर’ का 'र' हटता है तब ‘