"जहां लोगों की 'सोच' ख़त्म हो, वहाँ से आपकी 'सोच' शुरू होनी चाहिए "


पिताजी पूरा जोर लगा कर पिछले पांच घंटे से अपने बंद संदूक को खोलने की कोशिश कर रहे थे, संदूक पर जो ताला जड़ा हुआ था उसकी चाबी कहीं गुम हो गई थी और नहीं मिल रही थी, पिताजी जोड़-तोड़ से ताला खोलने की कोशिश कर रहे थे, पास ही दस साल का बेटा बहुत देर से खड़ा यह सब देख रहा था , अपने पिता की मुश्किल और मशक्कत देख वह परेशान था उससे रहा नहीं गया हिम्मत कर पिताजी के पास जाता और मदद के लिए कहता पर पिता हर बार उस पर खसिया कर नाराज़ हो उसे वहां से चले जाने को कहता-"जाओ अपनी पढ़ाई करो यह सब तुम्हारे बस का काम नहीं है, बार-बार मुझे परेशान मत करो" और वह फिर जोड़-तोड़ में लग जाता की बिना चाबी का ताला कैसे खुलेगा, जब वह पसीनों-पसीने हो गया तो थक कर बैठ गया अब बेटे से रहा न गया उसने बड़ी हिम्मत जुटाई और पिता से पूछ ही लिया "पिताजी क्या आपको ताला खोलना है या फिर संदूक ,बस एक बार बता दो", पिता ने बेटे की तरफ गुस्से से देखा और कहा "क्या फर्क है दोनों में" बेटा कुछ न बोला और सिर्फ एक पेचकस (Screwdriver) उठाया और संदूक के पीछे लगे कब्जे के स्क्रू (Screw) चंद मिनटों में खोल दिए और फिर संदूक झट से पीछे से खुल गया, पिता हैरान था उसकी आँखों में आंसू आ गए उसने अपने बेटे को गले से लगा लिया !

जी हाँ, दायरों ने पिता को अलग हट कर सोचने नहीं दिया और जिसने यानी बेटे ने सोचा उससे उसने सीखना नहीं चाहा, हममें से ज्यादातर लोग उस पिता की तरह हैं जो अपनी 'सोच' को अपनी 'सीख' की सीमित किये हुयें हैं और उससे से बाहर नहीं आना चाहते हैं, याद रखियेगा जहां लोगों की 'सोच' ख़त्म हो, वहाँ से आपकी 'सोच' शुरू होनी चाहिए तभी आप बाकी लोगों से अलग दिखेंगें नहीं तो सिर्फ भीड़ का हिस्सा मात्र भर रह जायेंगें इसके अलावा कुछ नहीं !

ज्यादातर लोग यह बर्दाश्त नहीं कर पाते की उन्हें कोई कुछ सीखा सकता है, क्योंकि दायरे उन्हें रोक लेते हैं 'हम' पर 'में' भारी पड़ता है, इनसे बाहर निकलें और हमेशा याद रखना सीखने की न कोई सीमा होती है, न ही कोई उम्र और इसी तरह सीखाने वाले की भी कोई उम्र या सीमा नहीं होती, हममें से ज्यादातर लोग सिर्फ इसलिए नहीं सीख पाते क्योंकि दायरे हमें बाहर निकलने नहीं देते और या फिर दायरों से बाहर निकलना नहीं चाहते !

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