'परिस्थितियां', 'लोग' और 'समय' जैसे हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार करें !


जलाने के लिए जरा सूखी लकड़ी लेते आना,
और हाँ जाते हुए यह सूखे फूल भी बाहर फेंकते हुए चले जाना.....,
और हो सके तो कुछ सूखे पत्ते भी ले आना आग जल्दी पकड़ेंगे,  
और हाँ पास ही जो सूखा पेड़ खड़ा है उसको भी जरा हिला आना ताकि अगली बार हवा में  गिर जाए, 
हाँ, भूल कर भी गीली लकड़ी मत लाना वह कभी नहीं जलेगी...आग पकड़ना तो दुर आग बुझा और देगी !

अंगीठी में सूखी लकड़ी डालते हुए पत्नी ने बाहर जाते हुए पति को हिदायतें दी,

घर के बाहर बिखरी सुखी लकड़ियां, अपने को बचाने के लिए हवा के साथ-साथ इधर उधर होने लगी,  हवा के साथ ही पेड़ों से झड़ते सूखे पत्ते भी कोशिश करने लगे की न झड़ें पर न चाहते हुए भी पेड़ों से हलकी हवा में ही  गिरने लगे , पास ही खड़ा सूखा और खोखला वृक्ष भी  जैसे तैसे हवा में अपने आपको कायम रखने की कोशिश में लग गया, यानी हर सूखा और खोखला पत्ता, लकड़ी, वृक्ष अपने आस्तित्व को बचाये रखने के लिए अपनी पूरी ताकत से लग गए..... 

इन सब की अपने आखरी समय की अपने को बचाने की जद्दोजहद्द पास ही खड़ा एक सौ बरस पुराना बरगद का हरा-भरा वृक्ष भी देख रहा था, हवा के झोंकों से कोई यहाँ उड़ता, कोई वहां बिखरता, तभी एक सूखा पत्ता हवा के तेज झोंके के साथ बरगद से जा चिपका....काका बचाओ हमें !

आज, अंगीठी में जलने की हमारी बारी है, किसी तरह बचाओ.....,

बरगद ने पूरी शतक देखा था कितनी सूखी डालियों और पत्तों को गिरते और झड़ते देखा था वह जानता था की शाख से राख हो जाने का सफर कितना दर्द भरा होता है, इसलिए उसने अपने से चिपके सूखे पत्ते को हवा के साथ अपनी एक डाली की आड़ में कर लिया !

सुखी टहनियों ने भी बहुत प्रयास किया पर उन्हें कोई आड़ नहीं मिली, पति ने पत्नी की हिदायतों के अनुसार एक-एक कर सुखी लकड़ियां और पत्ते एक गट्ठर में बाँधने शुरू किये, 

बरगद काका......उन सूखे पत्तों और लकड़ियों के अंत के दर्द को अपने अंदर अपनी बंद और आँसुओं भरी आँखों से महसूस कर रहे थे क्योंकि यह वही सूखी लकड़ियां थी, वही सूखे पत्ते थे जिन्होंने समय के अनुरूप, मौसम के अनुरूप, परिस्थितयों के अनुरूप उनके अनुसार अपने आप को नहीं बदला था या नहीं बदलना चाहा था....!

अपनी अकड़, अपनी जिद्द, अपने अभिमान को इन्होने अपने जीवन में अपने और अपनों से ऊपर रखा, इन्होने बदलने की बजाये बदला लेने के रास्ते को चुना, इन्होने परिस्थियों को अपने आस-पास को, अपने प्रतिवेश को स्वीकारने की बजाए उनको अस्वीकार क्या उनका प्रतिकार किया, इन्होने किसी को आशियाना और किसी को छाया देने की बजाए अपने को छोटी मानसिकता और बंद दायरों में संकुचित कर लिया था, अपने फलों को, अपने फूलों को दूसरों को देने की बजाए उनको सूखाना बेहतर समझा, जिन्होंने फलों और फूलों से झुकने की बजाये अकड़ना-सूखना  मंजूर किया ! 

अपनी जिद्द, अपनी अकड़ ने इन्हें अंदर से पूरी तरह से खाली कर दिया, खोखला कर दिया और धीरे -धीरे यह मुरझाने लगे समय और परिस्थियों के आगे झुखने लगे, सूखने लगे, इनके पत्ते भी इनका साथ छोड़ झड़ने लगे, जो अपने थे वह दूर होने लगे, जो सपने थे वह बिखरने लगे, मजबूत टहनियां भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगी और परिस्थितियों और हवा के हलके झोंखे भी इनको अपनी शाखों से गिरने लगे और ऊपर से दिखावटी और अंदर से पूरी तरह खोखले तने अपनी जड़ों से हिलने लगे सिर्फ और सिर्फ इसलिए की उन्होंने वक्त का सम्मान नहीं किया, वक्त के साथ नहीं चले, उन्होंने अपने अंदर की देने की चाहा को ख़त्म कर लिया, परिस्थियों में ढलने और अपने को ढालने की बजाए उनके आगे हार को स्वीकार किया....उन्होंने संघर्ष नहीं समर्पण किया, लड़ने की बजाए झड़ने को स्वीकार किया  !   

वह भी बरगद की तरह एक शतक  के गवाह बनते पर ऐसा हो न सका.......और पति के अंदर जाते ही बरगद ने उस सूखे पत्ते को अपनी डाली से नीचे छोड़ दिया हवा के झोंके के साथ दूर कहीं उड़  जाने को इससे पहले की किसी और कीअँगीठी का हिस्सा बने !

हममें से भी बहुत से लोग इन्हीं सूखे पत्तों और डालियों की तरह अपने आस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है क्योंकि हमने भी परिस्थितियों, समय और अपने आस-पास के लोगों के वह जैसे हैं वैसे ही स्वीकार नहीं किया, उनको बदलने, उनसे उलझने के प्रयास ने हमें और हमारी जड़ों को कमजोर कर दिया है, आप तभी तक सबको स्वीकार्य हैं जब तक आपको सब स्वीकार्य हैं.....अपने जीवन में लचीले बनिए जिद्दी नहीं, हमेशा समय के साथ चलें, समय के बाद नहीं !

सूखी  टहनियां और सूखे पत्ते  पेड़ों का साथ जल्द छोड़ देतें हैं,
अपनी जिद्द और अपने समर्पण के चलते,
और जो समय और परिस्थितियों के साथ चलते हैं,
वह कायम हैं आज भी और रहेंगे कल भी अपने संघर्ष के चलते....!
संघर्ष करिए.......समर्पण नहीं ! 

'परिस्थितियां', 'लोग' और 'समय'  जैसे हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार करें !

  
     

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